Wednesday 7 June 2023

सार्थक कविता आलोचना को लाँघ कर आती है !

 सार्थक कविता आलोचना को लाँघ कर आती है !

राज्यवर्द्धन

भूमंडलीकरण के बाद ‘बाजार’ ने जिस तरह से हमारे घर-परिवार और समाज का ताना-बाना बिखेर दिया है वह अत्यंत चिंताजनक हैं । आजादी के समय और आजादी के बाद जनता ने जिन मूल्यों व समाज के निर्माण के लिए संघर्ष किया था आज ‘सत्ता’ द्वारा उन मूल्यों को त्याग दिया गया है ।  देश को‘वेलफेयर स्टेट’ से ‘कॉरपोरेट स्टेट’ में बदल दिया गया है । हिन्दुस्तान में लोकतंत्र होने के बावजूद ‘बाजार’ ने यह स्थिति उत्पन्न कर दी है कि जो बाजार के लायक नहीं है उसे जीने का अधिकार नहीं है । देशी- विदेशी पूंजी द्वारा आम आदमी के विरुद्ध जो कुचक्र चलाया जा रहा है वह ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ और ‘अंग्रेजी औपनिवेशिक-शासन’ के कुचक्र से भी ज्यादा घातक और मारक है । ‘सत्ता’ में परिवर्तन हो जाता है परंतु सत्ता का चरित्र वही रहता है । ‘वोट’ द्वारा परिवर्तन मात्र प्रतीकात्मक रह गया है । ‘पूंजी’ और ‘बाजार’ ने ‘तंत्र’ को अपने अनुकूल बना लिया है फलत: लोक का हित नहीं हो पाता है । भूमंडलीकरण के बाद भ्रष्टाचार कई गुणा बढ़ गया है जो लाखों-करोड़ों में नहीं, बल्कि एक-एक घोटाला नील-पद्म तक पहुंच गया है । भारतीय अंक भ्रष्टाचार के आंकड़ों को गिनने में असमर्थ हो गये हैं । ऐसी स्थिति में समाज में साहित्य की भूमिका बढ़ गई है, खासकर कविता की। कविता जन -मानस को परिवर्तन के लिए तैयार करती है। हम 20वीं सदी में जातिवाद, साम्प्रदायिकता प्रांतीयता, दहेज, कन्या भ्रूण- हत्या, बाल-श्रमिक, महिला, किसान, दलित व गरीबों की समस्याओं के समाधान किए बिना 21वीं सदी में प्रवेश कर गये हैं । उदारीकरण व भूमंडलीकरण की नीति, कोढ़ में खाज का काम कर रही है । ऐसी स्थिति में कविता के सामने चुनौतियाँ पहले की तुलना में बढ़ी है और तय है – जिम्मेदारी भी । भूमंडलीकरण के बाद ‘बाजार’ ने जिस तरह से संचार माध्यमों के द्वारा खासकर टी वी और इंटरनेट से जो माया रचा है उसका काट खोजना बहुत जरूरी है । कविता को नई जिम्मेदारी के हिसाब से नई भाषा व शिल्प की तलाश करनी चाहिए।एक बार फिर कविता के लिए आर –पार की लड़ाई का समय आ गया है।वर्तमान समय में पत्र-पत्रिकाओं, संपादकों व आलोचकों को ध्यान में रखकर जो‘डिजाईनर' कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं उससे समाज का भला नहीं होगा ।

   समकालीन कविता पिछले दो दशकों में बहुत ही ज्यादा नरम व महीन हुई है । अमूर्त्तन व अबूझ बिम्बों की बहार हैं। कवियों की एकांतिक चिंतन, बौद्धिकता और कठिन कल्पना ने कविता को दुरुह किया है । पाठक कविता से विमुख हो गये हैं । कविता का क्षेत्र सिर्फ कवियों के लिए रह गया है ।श्रोताओं व पाठकों का प्रवेश निषेध है।  आज समकालीन कविता के पास कवियों की कमी नहीं है, कमी है तो पाठकों की है। खुले मैदान व बड़े हॉल में होने वाले ‘कवि सम्मेलन’ बंद कमरे की ‘कवि गोष्ठी’ में परिवर्तित हो गया है जिसमें सुनने का कोई नही सुनाने को सभी आतुर हैं । पाब्लो नेरुदा कहते हैं कि साहित्यकार और जनता के बीच गहरा संबंध होना चाहिए । मौजूदा समय में हिंदी के कवियों और जनता के बीच संबंध अत्यंत क्षीण है । नेरुदा अपने देश के किसानो,  मजदूरों एवं तांबा के खानों में काम करने वाले, समुद्र में काम करने वाले सभी के पास गये थे । वे सब अशिक्षित थे फिर भी वे नेरुदा से कहते थे – हमें अपनी कविता सुनाओ । पब्लो कहते हैं कि मजदूरों किसानों के संपर्क में आकर उसकी कविता बिल्कुल बदल गयी । नेरुदा का लगने लगा कि इन मेहनतकश आम आदमी साथ से संवाद करने के लिए कविता सीधी-सादी होनी चाहिए । उन्होंने अनुभव किया कि आम आदमी के साथ रहने के बाद वे अलंकारपूर्ण काव्य की रचना नहीं कर सकते क्योंकि जनता उससे अभिन्नता चाहती है, जुड़ाव चाहती है ।हमारे नागार्जुन भी ऐसे ही कवि थे । उसकी भाषा सरल थी । साधारण लोगों को भी उनकी भाषा समझ में आती थी परंतु हिंदी के अधिकांश कवि पत्र-पत्रिका, पुरस्कार व आलोचकों के सहारे अंधेरे बंद कमरे के महान कवि बने हुए हैं । कविता की परिधि का निरंतर विस्तार तो हुआ है परंतु केन्द्र से लोग गायब है । जनता को पुन: केन्द्र में लाना होगा । कविता को खाये- पीये-अधाए लोगों के बौद्धिक विमर्श से बचाना होगा । कृत्रिम गढ़े हुए शब्द व अबूझ विम्बों के बजाए जनता से संवाद करती भाषा होनी चाहिए । कविता में संप्रेषणीयता आज के समय की मांग है । सरल सहज भाषा आसानी से लोगों तक संप्रेषित होती है परंतु दु:ख है कि ऐसी भाषा में लिखने वाले कवियों को हाशिए पर डाल दिया जाता है, उनकी नोटिस नहीं ली जाती है । कविता में मूल तत्व के बजाए शिल्प व सौंदर्य पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, सजाया जा रहा है ताकि आलोचकों व निर्णयकों द्वारा सामादृत हो सके। युवा कवियों में भी यह प्रवृति घर कर गई है इसके लिए पूर्ववर्ती कवियों का भी दोष कम नहीं है । असंप्रेषणीय भाषा पाठकों को उलझाती है क्योंकि वह पल्ले नहीं पड़ती इसलिए कविता और कवि दोनों को समाज इन दिनों गंभीरता से नहीं लेता । कविता तभी कविता होगी जब वह समाज व लोग से संवाद करे । तीखे सवालों से कतरानेवाली कविता से समाज का भला नहीं होगा । कविता हाशिए पर आ गये लोगों व मूल्यों की वकालत करती जो केन्द्रीय सत्ता से अपदस्थ कर दिये गये हैं । कविता जाति, धर्म , सत्ता सबसे प्रश्न करती है । समान अधिकार के लिए लड़ती है । कविता का इतिहास मनुष्यता का इतिहास है इसलिए वह वर्तमान से टकराती है और भविष्य का समाज गढ़ने की चेष्टा करती है।कविता में समाज का संहिता व नियमावली बनने की क्षमता है। तुलसी,कबीर ,रहीम और बहुत से कवियों की पंक्तियां इसके प्रमाण है।

लेकिन मौजूदा समय में हिंदी समाज का मुखर मध्य वर्ग बाजार की मायाजाल में फंस चुका है और अधिकांश कवि इसी शहरी मध्य वर्ग से आते हैं इसलिए हिंदी कविता में तेवर नहीं है,ठहराव की स्थिति आ गई है जो बिना तीखे विवाद और वैचारिक रक्तपात की हिंसक आकांक्षा के बिना टूटने वाली नहीं हैं । आंदोलन विहीन समाज में कविता की भूमिका ज्यादा जिम्मेदारी भरी है,युवा कवियों यह भूमिका निभानी ही चाहिए । एक शुभ संकेत है कि समकालीन कविता के बहुत से युवा कवियों ने भाषा की अपनी जमीन तलाश ली है वह पश्चिम के प्रतिमानों से नियंत्रित नहीं हो रहे हैं और ना ही उधार की भाषा व विम्बों से अपनी कविता रच रहे हैं,इसलिए वे समाज से असानी से जुड़ सकते हैं,  बस आवश्यकता है - कविता में आज के समय के अनुरुप एक धार देने की।हाँ यह अलग बात है कि युवा स्वर की धार को अलोचना की उपेक्षा द्वारा कुंद की जा रही है । लेकिन सशक्त कविता आलोचकों को लांघकर ही लिखी जा सकती है। मुक्तिबोध इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। युवा कवियों को आलोचकों की बहुत ज्यादा परवाह नहीं करनी चाहिए । आलोचकों की अपनी पसंद नापसंद होती है और उसी के अनुरूप वे आलोचना करते हैं । समकालीन कविता और कवियों के प्रति आलोचकों की नजर प्राय: उपेक्षा वाली है । आलोचक को लगता है कि देश समाज में जो कुछ घटित हो रहा है उसका वही सटीक विश्लेषण कर सकता है या विश्लेषण की क्षमता और माद्दा उसी के पास है । रचनाकार खासकर नये रचनाकार में समकालीन प्रवृतियों को देखने समझने व विश्लेषण की क्षमता नहीं है । 

लेकिन आलोचकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि कविता का यह स्वभाव है कि वह बिना भूमिका के शुरू होती है और बिना उपसंहार पर खत्म होती है जबकि आलोचना बिना भूमिका के प्रारंभ नहीं हो सकती और ना ही उपसंहार के बिना खत्म होती है । भूमिका और उपसंहार अलोचनाकर्म को संपूर्णता देती है, परंतु इस कारण से वह रचना से श्रेष्ठ होने का दंभ भरे, उचित नहीं है । आलोचकों की इस समय स्थिति यह है कि वे इस भाव से कवियों पर लिखते हैं मानों उपकृत कर रहे हैं । आलोचकों के इसी प्रवृति के कारण ही रचनाकारों व कवियों ने काट निकाला है कि वे स्वयं अपनी-अपनी विधाओं के आलोचक बन बैठे हैं । एक कवि दूसरे कवि पर अहोभाव से लिख रहे हैं और इससे आलोचना का नुकसान ही हो रहा है । सच पूछा जाय तो मौजूदा समय में आलोचना हो कहाँ रही है ? आलोचना मात्र पुस्तक-समीक्षा तक सिमटी पड़ी है,ज्यों टेस्ट मैच की जगह क्रिकेट में 20-20 का जमाना आ गया है ।

 

 हिंदी के वरिष्ठ पीढ़ी के आलोचक अपने समकालीन या युवा पीढ़ी के रचनाकारों के बजाए मृत बड़े कवियों से टकराकर अपनी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं । आलोचक साहित्य को दशा दिशा देने के बजाए अपने को चमकाने में फंसे हुए हैं, इसलिए समकालीन रचनाधर्मिता की सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है। हिंदी आलोचक निराला के बाद मुक्तिबोध पर अटक कर रह गए हैं । समकालीन कविता के कवियों पर ढंग से चर्चा तक नहीं हो पाई है । इसलिए आलोचकों की भी एक महत्ती जिम्मेदारी है कि वे अपने समकालीनों पर कलम चलाये ।

कविता अपने समय की दस्तावेज होती है तथा उसमें भविष्य का स्वप्न भी निहित होता है ताकि एक सुंदर समाज का निर्माण हो सके इसलिए कवि को बिना आलोचकों की परवाह किए भविष्य का स्वप्न रचना चाहिए और दृष्टि एवं पक्ष भी  स्पष्ट कर लेनी चाहिए कि वह किस और हैं  । दृष्टि और पक्ष स्पष्ट हो जाने पर कविता स्वतःअपनी राह बनायेगी और जनधर्मिता के पक्ष में आयेगी।

(वर्तमान साहित्य,अक्टूबर-2013 में प्रकाशित)