राज्यवर्द्धन
बंगाल में साहित्य, कला और संगीत की त्रिवेणी बहती है। यहाँ जनसामान्य में साहित्य, कला, नाटक और संगीत के
प्रति जैसा अनुराग है वह भारत के अन्य प्रान्तों में दुर्लभ है। हो सकता है कि अन्य किसी प्रांत में
बंगाल से श्रेष्ठ कलाकार, संगीतकार, साहित्यकार एवं नाट्यकर्मी हों परन्तु बंगाल के आम लोगों में कला संस्कृति के प्रति
जैसा लगाव है वह अन्यत्र नहीं है, यही इसॆ अन्य प्रांतों से विशिष्ट बनाता है और इसी
कारण से कोलकाता को देश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान आधुनिक शिक्षा
के प्रचार प्रसार को इसका श्रेय जाता है। 1911 तक कोलकाता देश की राजधानी थी। राजाराम मोहन राय जैसे समाजसुधारकों के कारण
बंगाल में सामाजिक रूढ़ियाँ कमज़ोर हुईं जिसके कारण बंगाल में राष्ट्रवादी आन्दोलन की
राजनीतिक चेतना विकसित हुई। रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे सांस्कृतिक पुरुषों के प्रयास
से जन सामान्य में साहित्य और संस्कृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। कला संस्कृति
से जुड़ना सुसंस्कृत होने की शर्त बनी।
20 वीं सदी की शुरुआत में बंगाल में नवजागरण और जातीय चेतना के उन्मेष के कारण
कला में भी भारतीयता की तलाश शुरू हुई। इसके पूर्व केरल में राजा रवि वर्मा
(1848 - 1906) यूरोपियन कला के सम्मिश्रण से, कला के क्षेत्र में नवजागरण का सूत्रपात्र कर
चुके थे। वे ब्रिटिश शासन काल में यूरोपियन कलाकारों की शैली में, भारतीय जनमानस
में गहरे पैठे देवी देवताओं और पौराणिक आख्यानों पर आधारित चित्र बनाकर अकेले ही
उन यूरोपीय कलाकारों के सामने चुनौती पेश कर रहे थे। राजा रवि वर्मा के चित्र
तत्कालीन राजा महाराजा के महलों से लेकर
जन साधारण के घरों में कैलेंडर के रुप
में मौजूद और काफी लोकप्रिय था। आज
हिन्दुस्तान में जन मानस में देवी देवताओं की जो छवि निर्मित है, वह राजा रवि वर्मा की ही देन है।
अवनीन्द्रनाथ टैगोर (1871-1951)
यूरोपीय शैली के बरक्स जिस भारतीय शैली की तलाश कर रहे थे, उसका एक रास्ता यह
था कि वे राजा रवि वर्मा की शैली को ही
आगे बढ़ाते जैसा कि हेमेन मजुमदार(1894-1906)
ने किया परन्तु तब कला में जिस भारतीयता
की तलाश की जा रही थी वह अधूरी रह जाती। उस समय राजा रवि वर्मा की आलोचना इसलिए भी
की जाती थी कि उनके चित्रित विषय भले ही भारतीय रहे हो परन्तु शैली यूरोपीय थी।
अवनीन्द्रनाथ टैगर ने राज रवि वर्मा की शैली को आगे बढ़ाने के बजाय
परंपरागत भारतीय कला के राजपूत
शैली और मुग़ल शैली से आधार तत्व लेकर जापानी’ वाश’ टेक्नीक के सम्मिश्रण
से एक नयी शैली का सूत्रपात
किया जो कालांतर में ‘बंगाल- स्कूल’ के नाम से विख्यात
हुई और आधुनिक भारतीय कला की आधार भूमि साबित हुई।
अवनीन्द्र टैगोर का जन्म कोलकाता के जोड़ासांको में टैगोर परिवार में हुआ
था । रवीन्द्रनाथ टैगोर उनके चाचा थे । अवनीन्द्रनाथ की प्रारम्भिक कला शिक्षा यूरोपीय
कलाकार गिलहार्डी के सानिध्य में हुआ था । बाद में अवनीन्द्रनाथ टैगोर को लगने लगा
कि यूरोपीय कला शिक्षकों से उन्होंने जो सीखा है, उसमें भारतीयता लेशमात्र भी नहीं है। फिर वे हैवल और रवीन्द्रनाथ द्वारा
प्रेरित करने पर परंपरागत भारतीय कला राजपूत और मुगल शैली की ओर मुखातिब हुए । जब वे परंपरागत भारतीय चित्रकला के
साथ टेक्नीक व शैली के स्तर पर प्रयोग कर रहे थे तभी जापानी कलाकारों के संपर्क
में आये । इस संपर्क से ‘वाश’ टेक्नीक का जन्म
हुआ जो भारतीय और जापानी शैली वैशिष्ट्य के संयोग का प्रतिफलन था । इसी वाश टेक्नीक में भारतीय विषयों पर अवनीन्द्रनाथ ने चित्र बनाए। रवीन्द्रनाथ
टैगोर अवनीन्द्रनाथ के बारे में कहते थे कि उसने देश को आत्महनन की त्राश से बचा
लिया।
19 वीं सदी के अंतिम दशक में कोलकाता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ
आर्ट एवं क्राफ्ट में ई.वी. हैवल प्रिंसिपल बनकर आये । हैवल गुप्तकालीन कला,
अंजता-एलोरा के अपूर्व कला वैभव तथा मुगल व राजपूत कला की खूबियों से परिचित थे ।
वे मानते थे कि भारत में प्राचीन संस्कृति पर आधारित कला पंरपरा जीवंत और मौलिक है जो यूरोप की आधुनिक अकादमियों और कला
संस्थानों के संचित ज्ञान की अपेक्षा अधिक संपन्न और शक्तिशाली है । हैवल पहले
विदेशी थे जिन्होंने सही परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला का मूल्यांकन किया था। उनके विचार
भारत की कला और भारत के इतिहास दोनों के संबंध में सुलझे हुए थे।‘ इंडियन पेंटिंग
स्कल्पचर’ तथा कई अन्य किताबों के माध्यम से उन्होंने पश्चिम को भारतीय कला के वास्तविक
रूप से अवगत कराया और भारतीय कला के बारे
में बनी पूर्व अवधारणाओं को बदल दिया।उन्होंने विदेशी संस्कारों से ग्रसित
और हीन भावनाओं से पीड़ित भारतीय मानस को एक नई कला चेतना दी।गवर्नमेंट आर्ट स्कूल
के प्रिंसिपल बनते ही हैवल ने पाश्चात्य कला की नकलें जिनसे छात्र चित्र बनाना
सीखते थे,उठाकर फेकवा दी थीं और उनके स्थान पर राजस्थानी और मुगल कला के उत्कृष्ट
नमूने रखवा दिए। गुप्त काल की प्रतिमाओं का हैवल मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे।वे
गुप्त काल को भारतीय कला का स्वर्ण-काल मानते थे।हैवल का मत था कि भारत की
चित्रकला और मूर्तिकला मात्र प्रतिरूप नहीं है,वह व्यक्ति विशेष के दैहिक रूप
मात्र का प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि उसके अंतर्निहित अध्यात्मिक भावों को भी
उजागर करती है। हैवल को लगता था कि बस इस परंपरा को जगाने भर की आवश्यकता है ।
इन्हीं सृजनशील प्रवृत्तियों के पुनर्जागरण के लिए उन्होंने अवनीन्द्र ठाकुर को
प्रेरित किया ।
हैवल के संपर्क
में आकर अवनीन्द्र नाथ ठाकुर(1871-1951) ने राजपूत और मुगल शैली के चित्रों का गंभीर अध्ययन कर
भारत माता, बुद्ध जन्म, गणेश जननी, बुद्ध
और सुजाता , ताजमहल और शाहजहां की मौत शीर्षक से चित्र बनाये जो विषय और
शैली दोनों की दृष्टि से भारतीय थे । अवनीन्द्रनाथ ठाकुर में राष्ट्र प्रेम था ।
सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति के लिए उन्होंने अपने अग्रज गगनेन्द्रनाथ ठाकुर के
सहयोग से 1907 में कोलकाता में’ इंडियन सोसायटी ऑफ ओरियंटल आर्ट’ नामक संस्था की
स्थापना की । इस नवजागरण वेला में प्राच्य कला को गौरव प्रदान करने वालों में डाक्टर
आनंदकुमार स्वामी भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपनी तथ्यपूर्ण आलोचनाओं के द्वारा
तत्कालीन विदेशी कला- आलोचकों के मुँह को बंद कर दिये थे।उन्होंने भारत के कला
वैभव की समुन्नत विरासत में झांककर उसके
सौंदर्य को उद्घटित किया था ।
अवनीन्द्रनाथ के
शिष्यों ने चित्रकला के क्षेत्र में नयी आस्था और नये विश्वास के साथ आधुनिक
भारतीय चित्रकला का विकास किया । उनके योग्य शिष्यों में प्रमुख थे – नंदलाल बोस,
समरेन्द्रनाथ गुप्त, सुरेन्द्र नाथ गांगुली , असित कुमार हल्दार, के. वेंकटप्पा,
हकीम मुहम्मद, समी- उज-जमां, शैलेन्द्रनाथ डे, क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार, शारदाचरण
उकील, मुकुलचंद्र डे, प्रमोद कुमार चटर्जी, वीरेश्वर सेन, देवीप्रसाद राय चौधरी और
पुलिन बिहारी । इनमें समरेन्द्रनाथ गुप्त ने लाहौर में, के. वेंकटप्पा ने मैसूर
में, देवीप्रसाद राय चौधरी ने मद्रास में, शारदा चरण उकील ने दिल्ली में,
शैलेन्द्रनाथ डे ने राजस्थान में, असित कुमार हल्दार ने लखनऊ में तथा पुलिन बिहारी
दत्त ने बम्बई में स्वतंत्र रूप से कला केन्द्र स्थापित कर अनेक शिष्यों-
प्रशिष्यों के द्वारा बंगाल स्कूल की आधुनिक कला प्रवृतियों व शैली का विस्तार
किया ।
अवनीन्द्रनाथ ने भारतीय चित्रकला में जिस
नवोत्थान का उद्घोष किया उनके बाद उसका सफल नेतृत्व उनके सबसे प्रिय एंव योग्य
शिष्य नंदलाल बोस(1882-1966) ने किया। गवर्नमेंट
आर्ट स्कूल की शिक्षा पूरी होने के बाद गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने
नंदलाल बोस को अपने निवास में स्थित
स्टूडियो ‘विचित्रा’ में शिक्षक बना कर ले आए।बाद में अवनीन्द्रनाथ और उसके बड़े भाई गगनेन्द्रनाथ
टैगोर ने जब कोलकाता में ओरियण्टल स्कूल ऑफ आर्ट्स(1907 )का स्थापना किये तो वे वहाँ के प्राचार्य नियुक्त हुए।1922
में गुरुदेव उन्हें कलाभवन का प्रचार्य बनाकर शांतिनिकेतन ले आए।रवीन्द्रनाथ नंदलाल
बोस की विशुद्ध कला दृष्टि एंव अंतर्दर्शिता के बड़े प्रशंसक थे।महात्मा गांधी भी
नंदलाल बोस के कला व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे और उन्हें लखनऊ,फैजपुर और
हरिपुरा के कांग्रेस अधिवेशनों में पंडाल सज्जा के लिए बुलाया करते थे।नंदलाल बोस
की विशेषता यह थी कि उन्होंने कला में
निरंतर कई नई शैलियों के प्रयोग किए।वे चित्रों के रंग और रेखाओं में अपनी
कल्पनाशीलता से प्राण भर देते थे। नंदलाल बोस की रचनाधर्मिता की सर्वत्र मुक्त कंठ
से प्रशंसा हुई। लेकिन कुछ ने यह कह कर आलोचना किया कि उनकी कृतियाँ कला के इतिहास
में मात्र एक क्षण है,सदा गतिशील धारा नहीं । कुछ ने यह कहा कि उनमें आधुनिक
अभिव्यक्ति का मुकाबला करने योग्य ओजस्विता नही है। तमाम आलोचना के बाद भी यह सच
है कि आज भारतीय चित्रकला का विश्व में जो अपनी पहचान है उसमें आचार्य नंदलाल बोस की भूमिका को भुलाया नहीं जा
सकता । 1940-42 तक पूरे भारत वर्ष में बंगाल स्कूल की
तूती बोलती थी ।
यामिनी राय(1887-1972) और अमृता शेरगिल(1913-1941) जैसे कलाकारों ने
बंगाल- स्कूल के सामने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर अपनी नयी शैली विकसित की।यामनी
राय बंगाल-स्कूल को पश्चिमी शैली से प्रभावित मानते थे।पश्चिमी शैली के अंधानुकरण
को वे हेय दृष्टि से देखते थे।विदेशों में आज भी यामिनी राय के चित्रों की मांग है
क्योंकि वे एकमात्र भारतीय कलाकार हैं जिनमें शत-प्रतिशत भारतीयता है।यूनेस्को की
एक कला-प्रदर्शनी में 48 देशों से प्राप्त चित्रों की समीक्षा करते हुए न्यूयार्क
टाइम्स और लंदन टाइम्स ने उन्हें पेरिस के प्रभाव से अछूता कलाकार बताया था।आज भी
संसार के कई आर्ट-गैलरियों में उनके चित्र सुशोभित हैं।यामिनी राय ने पंरापरागत लघु-चित्रों
के बजाय लोक कला खासकर बंगाल की लोक कला से प्रेरणा ग्रहण कर अपनी स्वतंत्र शैली
विकसित की थी। यामिनी राय की सरल प्रवृति,भावुक भावना,लोक रूचि और रंगों के प्रति विशुद्ध
दृष्टिकोण, बाद में भारत में आधुनिक कला शैलियों के लिए प्रेरणादाक सिद्ध हुए।
लेकिन उन्हें जिस व्यापकता में अपनाया जाना चाहिए था,वैसा नहीं हुआ।
यामिनी राय के बाद
आधुनिक भारतीय चित्रकला में अमृता शेरगिल का नाम प्रमुखता से लिया
जाता है।अमृता के पिता भारतीय और माता हंगेरियन थीं। अमृता ने अपनी छोटी सी आयु में भारतीय चित्रकला
को अपनी मौलिक प्रतिभा से एक नई दिशा और
ऊँचाई दी। इटली और फ्रांस से कला की शिक्षा लेकर वह 1934 में भारत आई और शिमला में बस गई।अमृता की शिक्षा
दीक्षा भले ही विदेश में हुई थी परंतु उसके मन में भारत के प्रति स्वाभाविक प्रेम
था।उसने अपनी चित्रकला के लिए भारतीय विषयों खासकर आम
महिलाओं के जीवन
को आधार बनाया। चित्रों में विषय की नवीनता,तकनीक की ताजगी,रंगों की स्वच्छता और
रेखओं में प्रवाह थीं।28 वर्ष की अल्पायु में
अमृता का निधन हो गया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर(1861-1941) भी ऐसे कलाकार थे
जिन पर अवनीन्द्र टैगोर द्वारा प्रतिपादित
बंगाल –स्कूल की चित्र शैली का जरा भी प्रभाव नहीं था। सड़सठ वर्ष की आयु में कवि
गुरु ने अपने को अभिव्यक्त करने के लिए चित्रकला को माध्यम बनाया।उन्होंने अपने
चित्रों में रेखाओं और रंगों का प्रयोग जिस कुशलता से किया वह अकादमिक पद्धति से
बिल्कुल अलग था । वे हृदय में हिलोरें लेती भाव प्रवणता को चित्रों के माध्यम से
व्यक्त करते थे,जिसे वे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाते थे। वे कला में अंतर्राष्ट्रीयता के पक्षधर
थे।कला आलोचकों ने रवीन्द्रनाथ को हिन्दुस्तान का पहला आधुनिक चित्रकार माना ।
1942 में भारत में
स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था । 1943 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा । जनजीवन
अस्त- व्यस्त हो गया, लेकिन बंगाल स्कूल के प्रशिक्षित कलाकारों ने तत्कालीन समाज
के कटु यथार्थ को चित्रित नहीं कर पाये ।जिन कलाकारों ने बंगाल के दुर्भिक्ष का
अपनी कलाकृतियों में चित्रण किया उनमें प्रमुख
थे—जैनुअल अबैदिन( जो विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान-बांग्लादेश
चले गये),आदिनाथ
मुखर्जी,चित्तोप्रसाद,राम किकंर बैज,सोमनाथ होर ,प्राणनाथ मागो।इन कलाकारों के
दुर्भिक्ष- चित्रों को पहले तो नकार दिया गया परंतु आजादी के बाद यथेष्ट चर्चा और
सराहना मिली। बंगाल-स्कूल से असहमत विद्रोही कलाकारों ने 1942-43 में कोलकाता में “कोलकाता ग्रुप” की स्थापना किया
। प्रगतिशील विचारों वाले निरोद मजुमदार , शुभो टैगोर , गोपाल घोष , परितोष सेन,
रथीन मित्रा, प्राणकृष्ण पाल, प्रदोष दास गुप्त, कमला दास गुप्त, रामकिंकर बैज,
गोवर्द्धन ऐश, अवनी सेन, सुनील माधव सेन और हेमंत मिश्रा ने कला में नये युग का
सूत्रपात किया ।कोलकाता ग्रुप के कलाकारों ने पंरपरागत देवी- देवताओं के बजाय
सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर चित्र बनाए। यह ग्रुप एक दशक(1943-1953) तक भारतीय कला
परिदृश्य को अपने अवाँ-गर्द आंदोलन से आलोड़ित करते रहे।
प्रगतिशील लेखक संघ के गठन(1936) के बाद से ही देश की कला और संस्कृति पर प्रगतिशील विचारधारा का
प्रभाव बढ़ने लगा था । कोलकता ग्रुप से प्रभावित होकर1947-48 में फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा,के.एच.आरा,एम.एफ.हुसैन,एच.ए.गेंदे,एस.एच
रजा तथा एस.के.बकरे ने मुंबई में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना
किया।इसी तर्ज पर 1949 में दिल्ली में दिल्ली शिल्पी चक्र तथा
श्रीनगर में श्रीनगर प्रोग्रेसिव
आर्टिस्ट एशोसियेशन का गठन किया गया। देश के कई अन्य शहरों में भी प्रगतिशील
कलाकारों ने संगठन बनाए ।फलतः हिन्दुस्तान में एक नया कला आंदोलन का सूत्रपात
हुआ जो कला में किसी भी तरह के जड़ता के
खिलाफ था चाहे वह भारतीय हो या पाश्चात्य ।
स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद बंगाल समेत पूरे देश में दो प्रकार की विरोधी कला प्रवृतियां
देखने को मिल रही थीं।एक और ऐसे कलाकार थे जो पंरपरा के मोह में बँधकर अजंता तथा
पहाड़ी शैलियों के अनुसरण करने तथा उससे प्रेरणा पाने को उद्धत थे वहीं दूसरी और
वैसे कलाकार थे जो कला-सृजन के प्राविधिक
सिद्धातों के लिए पश्चिम का अनुयायी बने हुए
थे तथा कला को देश काल की सीमाओं से निकालकर उसे सार्वदेशिक और सार्वकालिक
बनाना चहते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसकी
शुरुआत पहले ही कर दी थी। वे भी कला में
अंतर्राष्ट्रीयता के समर्थक थे। कलाकारों ने प्राचीन की अनुकृति करने के बजाय वर्तमान के साथ चलना मुनासिब समझा और युग की
आवश्य़कताओं के अनुरुप कला को ढालने का प्रयास किया। यूरोपीय खास कर फ्रांस की कला
प्रवृतियों और आंदोलनों से प्रभावित होकर अधिकांश कलाकार जल रंग माध्यम में बने छोटे-छोटे
चित्रों के निर्माण को छोड़कर तैल रंग में विशाल चित्रों
को बनाने लगे और भारतीय चित्रकला में नयी प्रवृत्तियों का समावेश हुआ ।
लेकिन विनोद विहारी मुखर्जी (1904-1980) तथा राम किंकर बैज (1910-1990 ) जैसे कुछ कलाकार थे जो भारतीय कला पंरपरा से प्राण तत्व
ग्रहण कर यूरोपीय कला प्रवृतियों को
आत्मसात कर,यूरोपीय शैली से अलग एक नई शैली का नवोन्मेष कर रहे थे। लेकिन धीरे-धीरे आधुनिक भारतीय
चित्रकला में बंगाल स्कूल का दबदबा कम हो गया। मुंबई, पुणे, बडोदा, दिल्ली एवं त्रिवेंद्रम कला के नए केंद्र
के रूप में उभरे। मुंबई और बडोदा के कलाकारों ने विश्व की आधुनिक कला प्रविर्तियों को अपनी शैली में आत्मसात कर
भारतीय मुहावरों में कुछ नया कहने की कोशिश की और सफलता पाई। भारत की राजधानी का
कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित होने के कारण भी कोलकाता में कला को पोषित और प्रोत्साहित
करने वाले लोगों की कमी हो गयी। लेकिन शुक्र है कि कला और कलाकारों के प्रति आम
लोगों का जुड़ाव कम नहीं हुआ और कला की धारा बंगाल में
निरंतर प्रवाहमान है।
1947 के बाद देश में राष्ट्रवाद की चेतना
क्षीण हो गयी। राष्ट्रप्रेम की जगह सामाजिक चेतना ने ले लिया। चित्रकला में भी
सामाजिक चेतना का उदय हुआ।चित्रकला में नई प्रवृतियों का समावेश कर अनेक कलाकारों ने देश काल की सीमाओं को लांघ कर
अपनी कला को सार्वदेशिक कला का रूप दिया। आज़ादी के बाद जिन कलाकारों ने भारतीय
चित्रकला को अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाने में योगदान दिया उनमें प्रमुख हैं—कंवल
कृष्ण,
विरेन दे, कृष्ण खन्ना, मोहन सामंत, के एस कुलकर्णी, एम. एफ. हुसैन, राम कुमार, रजा, सतीश गुजराल,
फ्रांसिस
न्यूटन सूजा, शांति देव, तैयब मेहता, किरण सिन्हा,
आरा, अकबर पद्मशी, बेन्द्रे, पी टी रेड्डी, राम किंकर बैज, के के हैब्बर, स्वेतरलाव रोरिक, कुमारिल स्वामी इत्यादि। बंगाल के जिन प्रमुख कलाकारों ने अपनी कृतियों से
आजादी के बाद अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई उनमें प्रमुख है- देवीप्रसाद चौधरी, सोमनाथ होर, शैलज मुख़र्जी, मीरा मुख़र्जी, चित्तो प्रसाद भट्टाचार्य, गोवर्धन ऐश, चिंतमाणि कर, निरोद मजुमदार, गोपाल घोष इत्यादि।
आज़ादी के बाद बंगाल में शुरुआती दौर
की चित्रकला में पाश्चात्य और भारतीय शैलियों के मिश्रण की अधिकता थी। बाद में धीरे-धीरे
कलाकारों ने परिवर्तित परिस्थतयों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित कत भारतीयता
वाली स्वतंत्र शैली विकसित कर ली । इस संक्रमण काल में बंगाल के जिन कलाकारों
ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई हैं उनमे प्रमुख हैं -राम किंकर
बैज ,बिनोद बिहारी मुखर्जी ,देवीप्रसाद राय
चौधुरी ,चिंतामणि कर ,मीरा मुखर्जी ,निरोद मजुमदार ,गोपाल घोष ,परितोष
सेन ; ये सभी कलाकारों ने अपनी कला शुरुआत बंगाल स्कूल के समय की थी बाद में अपनी
स्वतंत्र शैली अपना कर बंगाल की कला को एक नयी
दिशा दी।राम किंकर बैज (1910-1980) की ख्याति मूर्तिकार के रुप में ज्यादा है।परंतु वे एक
सिद्धहस्त चित्रकार और ग्रेफिक्स कलाकार भी थे। उनकी कला में जनपक्षधरता है।बिनोद
बिहारी मुखर्जी (1904-1980)चित्रकार के साथ-साथ प्रसिद्ध भित्ती चित्रकार भी
थे।ये पहले कलाकार थे जिन्होंने भित्तीचित्र को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया
था। देवीप्रसाद राय चौधुरी (1899-1975)
बंगाल स्कूल की कला प्रेरणाओं और प्रभावों को मद्रास तक ले गये थे।वे मूर्तिकार के
साथ-साथ चित्रकार भी थे, दोनों में पृथक –पृथक ढ़ग से अपनी भावनाओं को ढ़ाला। राय चौधरी आकृति चित्रों में सर्वाधिक
सफल रहे ।चिंतामणि कर(1915-2005 )भी
चित्रकार के साथ- साथ मूर्तिकार भी थे।चिंतामणि कर की रचनात्मक अभिव्यक्ति के बारे
में कहा जाता है कि वह पिकासो की कला दुनिया
की
तरह ही विवधताओं से भरी पड़ी है । परितोष
सेन ने अपने चित्रों में फ्रांस की उत्तर भाववदी शैली और बंगाल की लोक
कला के सम्मिश्रण से शहर के साथ-साथ ग्रामीण परिवेश को चित्रित किया।बाद की पीढ़ी के
महत्वपूर्ण कलाकार जिन्होंने बंगाल की कला को राष्ट्रीय ही नहीं वरन अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर पहचान दिलाई, उनमें प्रमुख हैं- जोगेन चौधुरी, गणेश पाइन, गणेश हलोई, ए .रामचंद्रन,सुहास
राय ,धर्मनारायण दास गुप्ता, सुनील दास, सनत कर, श्यामल
दत्ता राय, विकास
भट्टाचार्य, परेश
मैइती, मानिक
बंधोपाध्याय, शुभप्रसन्ना, रवीन मंडल, कार्तिक
पाइन, अमिताभ
दास, बी
आर पनेसर, लालू
प्रसाद साव, ईशा
मोहम्मद,जहरदास
गुप्ता, अमिताभ
बैनर्जी, बिजन
चौधुरी। इसके बाद के पीढ़ी जिन्होंने बंगाल ही नहीं पूरे देश में अपनी धाक जमाई है, उसमें
प्रमुख हैं-वसीम कपूर समीर आइच, आदित्य बसाक, अतिन बसाक, सनातन डिंडा , शेखर राय, अमिताभ धर, तापस कोनार, अशोक मल्लिक, मनोज मित्रा, मनोज दत्ता,असित पोद्दार,विश्वजीत साहा,सौमित्र कर,सुमन राय,समींद्रनाथ
मजुमदार,करुणमय सूर, दीपंकर
दास गुप्ता, अरिंदम
चटर्जी, पार्थो
दास गुप्ता, चंचल
मुख़र्जी, कृष्ण
देव, विश्वनाथ
राय इत्यादि।
बंगाल में जोगेन चौधुरी ,गणेश पाइन ,कार्तिक चन्द्र पाइन और गणेश हालोई जैसे बहुत से कलाकार हैं जिन्होंने अपने बचपन में भारत विभाजन का
दंश को भोगा हैं, शरणार्थी जीवन के
संघर्ष के ताप को महसूस किया है।शैशवास्था का तनाव इन कलाकारों का कामों में झलकता है।जोगेन
चौधुरी( 1939) के चित्रों में तनाव के अलावा प्रकृति-- फूल ,पत्तियों और लताओं
में चित्रित हुआ है। गणेश पाइन का रचना संसार यथार्थ व् कल्पना के बीच दोलन करता है। पाइन अति यथार्थवादी
कलाकार के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन उनके चित्रों में अति यथार्थवादी
विद्रूपताओं का समावेश नहीं है। सामान्य जगत से परे जो जगत है उसका चित्रण ही गणेश
पाइन का लक्ष्य है। गणेश पाइन व टेम्परा माध्यम दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं।
टेम्परा उनके व्यक्तित्व व स्वभाव के अनुरूप है। टेम्परा माध्यम समय व धीरज की
मांग करता है,
कलाकार के
कामों में धीरज खूब झलकता है। गणेश हालोई अद्भुत शैली में लैंडस्केप को चित्रित
करते हैं। इनका लैंडस्केप देख कर ऐसा लगता है जैसे काफी ऊँचाई से अवलोकन कर
चित्रित किया गया हो। गणेश हालोई बंगाल में अमूर्त शैली में काम करने वाले गिने चुने कलाकारों में से एक हैं। विकास भट्टाचार्य ऐसे कलाकार हैं
जिन्होंने मुख्यधारा (ऐब्सट्रैक्ट/ सेमी ऐब्सट्रैक्ट) के विपरीत जाकर आकृति मूलक ओर पोर्ट्रेट में अपना विशिष्ट मुकाम बनाया है। ये कला में यथार्थ शैली के
पक्षधर हैं। बी आर पनेसर’ कोलाज शैली’ के महत्वपूर्ण
कलाकार हैं।रंगों के वजाय वे कागज़ के टुकड़ों को चिपकाकर पेंटिंग बनाते हैं।
उन्होंने ग्राफ़िक माध्यम में भी बहुत अच्छे काम किये है। पनेसर जी ने शकीला
जैसे फूटपाथ पर रहने वाले बच्चे को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बनाने में
योगदान दिया है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। बी आर पनेसर इसे ‘ह्यूमन कोलाज’
कहते हैं। कोलकाता में एक से एक बड़ा कलाकार है
लेकिन संत कलाकार एक ही है, वह है- बी आर पनेसर। अरिंदम चटर्जी अमूर्त शैली में लैंडस्केप चित्रित करते हैं। अमूर्त दृश्यों को उम्दा
कलाकृतियों में बदल देने की कलाकार के पास एक अद्भुत क्षमता एंव शैली है।
कहा जता है कि महिलाएं आदिकाल से समाज को मापने का पैमाना रहीं हैं। समाज में
महिलाओं की स्थिति से जाना जा सकता है कि समाज कितना समुन्नत है। प्रायः पुरुष
कलाकारों ने नारी के कमनीय काया के सौन्दर्य को ही उद्घटित किया है जो नारी की एकमात्र
सच्चाई नहीं है। इसके बरक्स जब महिलाएं कलाकृतियाँ रचती हैं तो उसमें उसका सुख
दुःख, स्वप्न, सामाजिक विसंगतियां एवं प्रकृति सभी कुछ
मुखरित होता है जो प्रमाणिक दस्तावेज की
तरह होता है। बंगाल की जिन महिलाओं ने
अपनी कलाकृतियों से
समाज का चित्रण किया है, उनमें प्रमुख हैं - अनीता रायचौधरी, रेबा होर, अर्पिता सिंह, बीना भार्गव,एलिना
बाणिक,सुलोचना सारस्वत,वंदना राय,मधु धानुका इत्यादि।
मौजूदा समय में कोलकाता समेत बंगाल में नए पुराने कलाकारों की
संख्या सैकड़ों में नहीं बल्कि हज़ारों में है। इस लेख में सभी का उल्लेख और
मूल्यांकन मुमकिन नहीं है।
उदारीकरण के बाद भारत के कला बाज़ार
में 2003 से 2008 के बीच में असाधारण उछाल
देखने को मिला।भारतीय कलाकारों की मांग विदेशों में बढ़ गयी ।एम.एफ.हुसैन, तैय्यब मेहता, जोगेन चौधुरी, गणेश पाइन जैसे कलाकारों की कृतियाँ करोड़ो में बिकने लगी। कुछेक हज़ारों में बिकने वाली मध्यम दर्जे के कलाकारों
की कृतियाँ भी लाखों में बिकने लगीं। कला प्रेमियों और संग्राहकों की जगह कला निवेशकों ने ले लीं। कोलकाता में कई नए
–नए कला दीर्घाओं का जन्म हुआ, नीलामी घर खुले। सौन्दर्य प्रसाधन एवं रियल एस्टेट का कारोबार
करने वाली’ इमामी ग्रुप’ ने कोलकाता में पहला नीलामी घर फरवरी 2008 में खोला जिसमे देश के 70 कलाकारों की 89 कलाकृतियाँ नीलामी के लिए प्रदर्शित की
गयी। प्रदर्शनी में तैयब मेहता की पेंटिंग "काली" की न्यूनतम बोली चार करोड़ रखी
गयी थी जो 4.40
करोड़ में
बिकी। एम एफ हुसैन की पेंटिंग भी इतने ही दाम में बिकी। जे स्वामीनाथन की कृति 1.76 करोड़ में तथा फ्रांसिस न्यूटन सूजा की पेंटिंग 1.65 करोड़ में बिकी। रविन्द्र रेड्डी की
मूर्ती 97.7 लाख में बिकी।
कोलकाता के युवा कलाकारों की कृति भी नयी ऊँचाई को छुआ। शेखर राय की
कृति 11.5 लाख, आदित्य बसाक की10.30 लाख तथा चंद्रा भट्टाचार्य 8.82 लाख में पहली बार बिके। इसके अलावा विकास भट्टाचार्या, श्यामल दत्ता राय, परितोष सेन, शक्ति बर्मन, शुभप्रसन्ना, गणेश हालोई, जोगेन चौधुरी, परेश मैइती, लालू प्रसाद साव और रवीन मंडल की कृतियाँ भी नीलामी में
शामिल की गई थीं। कोलकाता के कलाकारों में काफी उत्साह था। उनको लगता था की
कोलकाता के कलाकारों की कीमत दिल्ली और मुम्बई के कलाकारों की तुलना में काफी कम
हैंऔर ऑनलाइन नीलामी से बंगाल के कलाकारों को अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में अच्छी कीमत
मिलेगी। कलाकृतियों में
निवेश के लिए उदारीकरण के समय म्यूचुअल फण्ड भी लाया गया। जिन्हें कला की तमीज तक नहीं थी वे
भी कला पारखी होकर आर्ट गैलररियों में घूमने लगे। एकाएक निवेशकों में कलाकृतियों
की मांग बढ़ गईं। फलतः स्तरहीन कलाकृतियों
की बाढ़ सी आ गई। लेकिन 2008 में अमेरिका में आई महामंदी के बाद स्थतियां
बदल गई। कोलकाता में कुकुरमुत्ते की तरह
उग आए कला दीर्घाएं बंद हो गयीं। 2009 के बाद कला बाज़ार में बदलाव आया है।
निवेशकर्ता बजाय गैलरी मालिकों और दलालों के अन्य श्रोतों से पुख्ता जानकारियाँ
लेने लगे हैं। खरीददार कलाकारों के कामों में भारतीयता की तलाश करने लगें हैं
क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में सुबोध गुप्ता ,अनीश कपूर, जतीश कलाट, अतुल डोडियाएंव
ध्रुव
मिस्त्री जैसे कलाकार जिनके कामों में भारतीयता है, की मांग बढ़ी है। इन दिनों चित्रकला
में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिली है कि कलाकार रंग और कैनवास के
अतिरिक्त अन्य माध्यमों - कंप्यूटर ग्राफ़िक्स, फोटोग्राफी, आधुनिक तकनीक का प्रयोग करने लगे हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह हुई है कि कलाकारों की भीड़
में खरीददार उन कलाकारों के कृतियों को तरजीह देने लगे हैं जिसके भावाभिव्यक्ति
में निजता है। उदारीकरण के बाद
बंगाल के जिन युवा कलाकारों नें अपनी कृतियों से बाज़ार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है उनमें प्रमुख हैं- चित्रभानू मजुमदार, सुशांत मंडल, चेतन उपाध्याय, चित्रा गणेश, जॉर्ज मार्टिन एवं देवज्योति राय । इन सबों के कामों में
निज की शैली झलकती है।
कोलकाता में कला के विकास में बिरला अकादेमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर तथा एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दोनों हीं संस्थाएं लंबे अरसे से प्रतिवर्ष वार्षिक
प्रदर्शनी आयोजित करती हैं जिसमें बंगाल के अलावा दू सरे प्रांत के सैंकड़ों कलाकार
भाग लेते हैं तथा चुनी हुई कलाकृतियों को पुरस्कृत भी किया जाता है। इस प्रकार ये
दोनों ही संस्थाएं लगातार नयी प्रतिभाओं को प्रकाश में लाने और तराशने का भी काम
कर रहीं हैं। कोलकाता में
कई आर्ट कॉलेज हैं जिनमें प्रमुख हैं- गवर्नमेंट आर्ट
कॉलेज, इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट कॉलेज, इंडियन कॉलेज ऑफ आर्ट एंड
ड्राफ्टमैन्सशिप,
तथा
शान्तिनिकेतन का कला भवन। जहां से प्रति
वर्ष सैंकड़ों छात्र-छात्राएँ प्रशिक्षित होकर निकलते हैं। इसके अलावा गली-मुहल्लों
में भी अनेकों प्रशिक्षण केंद्र हैं जहाँ कला की
बारीकियों को सिखाया जाता है। य़े प्रशिक्षण
क्रेंद कलाकारों द्वारा व्यक्तिगत रूप से चलाये जाते हैं।
चित्रकूट आर्ट गैलरी, गैलरी 88, चेमुल्ड आर्ट गैलरी, सीमा आर्ट गैलरी, आकृति आर्ट गैलरी, आकार प्रकार, वीवर्स स्टूडियो
में सालों भर कला- प्रदर्शनियां आयोजित की जाती हैं जिससे कोलकाता के कला जगत में
हलचल सी मची रहती है।
कोलकाता में प्रत्येक वर्ष कुछ नए कला ग्रुप उभरते हैं जो कुछ दिन चलते हैं और
फिर समाप्त हो जाते हैं, लेकिन सोसाइटी ऑफ कंटेम्पररी आर्टिस्ट कला ग्रुप, कोलकाता पेंटर्स ग्रुप, ओपन विंडो ग्रुप तथा कई अन्य ग्रुप लगातार सक्रिय हैं। कलकत्ता
का कला जगत राजनैतिक चेतना से भी लैश है। पिछले दिनों बंगाल में जो सत्ता परिवर्तन
हुआ है उसमें कुछ कलाकारों की सक्रिय भूमिका रही है।
लेकिन तमाम हलचल और राजनैतिक चेतना के बाद भी बंगाल के कला जगत में एक ठहराव सा आ गया है। इसका कारण यह
है कि यहाँ के चर्चित कलाकार अपनी ख़ास शैली में बद्ध हो जाने के बाद प्रयोग से डरते हैं, क्योंकि उन्हें
लगता है कि इससे उनकी कलाकृतियाँ की बिक्री में कहीं व्यवधान न आ जाए। कोई कलाकार आज से
दस बारह वर्ष पूर्व जैसा काम करते था आज भी उसी शैली में काम करते मिल जायेंगे। जो
बंगाल कभी जलरंग माध्यम में बनें चित्रों के लिए पूरे विश्व में विख्यात था आज इस
माध्यम में केवल सतही काम हो रहे हैं। जलरंग माध्यम में बने चित्र पहले की तरह
प्रभाव नहीं छोड़ पा रहे हैं। कुछ नयापन
नही है। इससे अलग वरिष्ठ
कला आलोचक एवं कवि माणिक बच्छावत का मत है कि पहले की तुलना में आज के
कलाकारों के कामों में तकनीक के कारण ज्यादा फिनिशिंग आई है। रंगों के चुनाव में
भी बदलाव आया है तथा रेखाओं में भी सुधार है। इन कलाकारों के कामों में परिवर्तन
के बावजूद भी बंगाल की ख़ास परंपरा बरकरार है जिसकी शुरुआत आज से सौ वर्ष से भी
पहले अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने किया था। चर्चित वरिष्ट व
प्रवासी कलाकार शक्ति बर्मन का मत है कि आज के समकालीन भारतीय कलाकार पहले
की तुलना में व्याकरणिक रूप से ज्यादा मज़बूत हआ है तथा उनके अवधारणा में भी
परिवर्तन हुआ है। आज के भारतीय कलाकारों को जीवन यापन के लिए उतना संघर्ष नहीं
करना पड़ता है जो पहले का पीढ़ी को करना पड़ता था। इसलिए समकालीन भारतीय कलाकार बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं। तमाम नकारात्मक
परिस्तिथियों के बावजूद भी बंगाल में
चित्रकला का भविष्य अत्यंत उज्जवल है क्योंकि यहाँ के कलाकारों को जन का समर्थन
प्राप्त है।आज़ादी के बाद बंगाल स्कूल का दबदबा अखिल भारतीय स्तर पर भले ही
धीरे-धीरे कम हो गया हो लेकिन कला की अविरल धारा बंगाल में निरंतर प्रवाहमान है । भारत में आधुनिक भारतीय
चित्रकाला का श्रीगणेश करने का श्रेय बंगाल स्कूल को ही जाता है।आज भी कोलकाता और
शांतिनिकेतन के कलाकारों का भारतवर्ष के
समकालीन कला जगत में यथेष्ट सम्मान प्राप्त है। भले ही मुंबई और बड़ोदा के कलाकारों नें आधुनिक
कला प्रवृत्तियों को भारतीय मुहावरों में गढ़कर
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कला बाजार के कारण
बढ़त प्राप्त कर लिया हो लेकिन समाज में
कला और कलाकारों का जो महत्व एवं
बंगाल में हासिल है वह किसी भी प्रांत के कलाकारों के लिए ईर्ष्या का कारण हो सकता
है। बंगाल के जनसाधारण में कला और कलाकारों
के प्रति जो आदर भाव है उसका श्रेय बहुत
हद तक रवीन्द्रनाथ, अवनींद्रनाथ, गगनेंद्रनाथ, नंदलाल बोस जैसे
कलाकारों को जाता है।शायद ही बंगाल में ऐसा कोई विद्यार्थी होगा जिसने
प्रारंभिक या माध्यमिक कक्षाओं में अलग से चित्रकारी
का कोई प्रशिक्षण न लिया हो। बंगाल में कई ऐसी संस्थाएं हैं जो बच्चों के लिए चित्र प्रतियोगितायें आयोजित करती हैं,ऐसी प्रतियोगिताओं की संख्या
सैकडों में है ।
यहाँ कलाकारों के पनपने का जितना अनुकूल परिस्थिति और उचित अवसर है उतना शायद हीं कही होगा । फलतः
बंगाल में कलाकारों की संख्या किसी भी राज्य की तुलना में काफी ज्यादा है। बाज़ार
के हिसाब से कोलकाता में कलाकृतियों का मूल्य काफी कम है औसत मध्यवर्गीय
परिवार भी कलाकृतियों की खरीददारी करते हैं। संगीत नाटक और कला से जुड़ना बंगला भाषियों का लिए सुसंस्कृत होने की पहचान है।
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Yah lekh Parikatha March-April (2013) mein prakashit hui hai.