भारत में आधुनिक चित्रकला को प्रारंभ करने का श्रेय यदि अवनीन्द्रनाथ टैगोर को जाता है तो मूर्तिकला में आधुनिकता का श्रीगणेश करने का
श्रेय रामकिंकर बैज को है । रामकिंकर बैज
को आधुनिक भारतीय मूर्तिकला का जनक कहा जाता है । रामकिंकर का जन्म 1906 में
पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा में एक अत्यंत विपन्न परिवार में हुआ था लेकिन अपने दृढ़
संकल्प और लगन से उन्होंने मूर्तिकला में जिस
ऊंचाई को छुआ वह परीकथा सा है । उन्होंने परवर्ती कई भारतीय मूर्तिकारों को
अपनी कला से प्रेरित किया । यही नहीं साहित्यकार और सिनेमा के निर्देशक को भी अपनी
असाधारण जीवनी को लिखने एवं फिल्मांकन के लिए प्रेरित किया ।
20वीं सदी के प्रारंभ
होने के पूर्व तक कई भारतीय मूर्तिकार यूरोपीय शैली में मूर्तियों के निर्माण के
लिए प्रेरित या यों कहे कि बाध्य थे । इनमें प्रमुख थे – रोहित कांतनाग
(1868-1895), फणीन्द्रनाथ बसु (1888-1926) हिरणमय राय चौधरी (1884-1962),
देवीप्रसाद राय चौधरी (1899-1975) एवं प्रमथनाथ मल्लिक (1894-1963) एवं अन्यान्य ।
1906 के आसपास अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने जब नई चित्र शैली – ‘बंगाल स्कूल’ का
सूत्रपात किया तो भारत में चित्रकला के क्षेत्र में तो अभिनव प्रयोग हुए , परंतु पता नहीं क्यों
चित्रकला में आधुनिकता का नवोन्मेष करने वालों ने मूर्तिकला के क्षेत्र में कोई
पहल नहीं की । यहाँ तक कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी उस समय किसी को प्रेरित नहीं
किया । 20वीं सदी के प्रारंभ में कोलकाता की ‘बाबू-संस्कृति’ में विदेशी कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों की धूम थी । संपन्न लोग
अपने घरों को सजाने के लिए विदेशी कलाकारों से मूर्तियाँ बनबाते थे । विदेशी
कलाकारों की कलाकृतियाँ तब संपन्नता की निशानी समझी जाती थीं । यहाँ तक कि
स्मारकीय मूर्तियाँ ब्रिटेन से मंगवायी जाती थी ।
ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में देवीप्रसाद राय चौधरी ने पहली बार यूरोपीय
शैली से थोड़ा हटकर भारतीय स्पर्श देने की कोशिश की । देवीप्रसाद राय चौधरी
(1899-1975) आचार्य अवनीन्द्रनाथ टैगोर के योग्य शिष्यों में गिने जाते हैं ।
चित्रकला और मूर्तिकला, दोनों विषयों पर उनका समान अधिकार था । ओरियंटल आर्ट स्कूल
(कोलकाता) से शिक्षा ग्रहण कर वहीं शिक्षक बन गये । बाद में मद्रास चले गये और
वहाँ के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्टस के प्रिंसिपल बने । वे पहले आधुनिक मूर्तिकार थे
जिन्होंने ब्रोंज माध्यम में काम किया । उनकी आदमकद मूर्तियों में गति , उर्जा व
भाव का अदभुत समन्वय है । बिहार के पटना सचिवालय के सामने जो शहीद स्मारक की
मूर्ति हैं उसमें गति देखी जा सकती है ।
कला जगत में उनके अतुल्य योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से
1958 में सम्मानित किया ।
देवीप्रसाद चौधरी के बाद रामकिंकर
बैज ने मूर्तिकला में नए आयाम जोड़कर आधुनिक भारतीय मूर्तिकला को सुदृढ़ आधार
प्रदान किया । 1925 में रामकिंकर बैज
शांति निकेतन आ गए । नंदलाल बोस और रवीन्द्रनाथ ने उनकी प्रतिभा को उभरने का भरपूर
मौका दिया । चित्रकला के साथ-साथ उन्होंने मूर्तिकला भी सीखी परंतु प्रसिद्धि
मूर्तिकार के रूप में ज्यादा है । 1938 में उन्होंने ‘संथाल परिवार’ की मूर्ति
बनायी । देवी देवता, राजा-महाराजा और महान विभूतियों के समकक्ष उन्होंने संथाली
परिवार को निर्मित कर साधारण जन को गरिमा प्रदान की जो उनकी सामाजिक राजनीतिक
चेतना को दर्शाता है ।उन्होंने अपने आसपास के परिवेश का गहन अध्यन किया था । शांतिनिकेतन
में बनी उनकी मूर्तियों को देखकर यह जाना जा सकता है कि विषय-वस्तु और
बाह्य-परिवेश (जहाँ मूर्तियां स्थापित है) में कैसी अदभुत समरसता वे रचते थे ।
मूर्तिकला में रामकिंकर ने आधुनिक कला की सभी प्रवृतियों को अपनाया –यथार्थवाद,
घनवाद से लेकर अतियथार्थवाद तक । मूर्तियों के माध्यम के लिए परंपरागत चीजों को
छोड़कर सीमेंट तक से मूर्तियाँ बनाये ।
रामकिंकर बैज के
व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रभावित होकर बांग्ला के चर्चित
उपन्यासकार समरेश बसु ने उनके जीवन पर आधारित एक उपन्यास ‘ देखी नाई फिरे ’ (मुड़कर नहीं देखा) सृजित कर रामकिंकर को जन साधारण में ‘ आईकॉन ’ बना दिया । प्रसिद्ध फिल्मकार ऋत्विक घटक
भी उनकी असाधारण प्रतिभा के कायल थे । 1975 में उन्होंने सामकिंकर बैज के ऊपर एक
डॉक्यूमेंट्री बनाई जिसमें उन्होंने मूर्तिकार के अंदर जो एक राजनीतिक चेतना थी
उसे उद्घटित किया ।
देवीप्रसाद चौधरी और
रामकिंकर बैज के शिष्यों – धनराज भगत, पी.वी.जानकीराम, रजनीकांत पंचाल, ए एम.डाबरीवाला, राघव कनोरिया जैसे कुछ मूर्तिकारों ने आधुनिक भारतीय शैली की
मूर्तिकला को और आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । बंगाल के जिन मूर्तिकारों
ने इस दिशा में अपने कदम बढ़ाए उनमें प्रमुख है- सुधीर रंजन खस्तीगीर (1907-1974
),प्रदोष दास गुप्त (1912-1991),चिंतामणि
कर (1915-2005), संखो चौधरी (1916-2006), सोमनाथ होर (1921-2006), मीरा मुखर्जी (1923-1998), सुनील कुमार पाल (1920) इत्यादि । इन कलाकारों ने अपनी निज की शैली तो
विकसित की ही है साथ ही मूर्तिशिल्प के परंपरागत आधार तत्वों एवं दर्शन में
पश्चिम के कला शैली व तत्वों का समावेश
कर भारतीय मूर्तिकला को विविधता प्रदान करने के साथ साथ आधुनिक प्रवृतियों से भी
समृद्ध किया । मानवीय सौंदर्य एवं प्रकृति को रूपायित करने के अलावा इन कलाकारों
ने अपनी निर्मितियों में सामाजिक विसंगतियों को भी प्रकट किया ।
चिंतामणि कर ने
आधुनिक मूर्तिकला को विषय एवं रूपों को अपनाने से पहले प्राचीन भारतीय मूर्तिकला
का इतना अभ्यास कर लिया था कि उनके मूर्तिशिल्प में वर्तमान ही नहीं भूत और
भविष्य के रूपों को भी देखा जा सकता है ।
उनकी कला निर्मितियों में एक ओर जहाँ मथुरा की पाषाण प्रतिमाओं की लयात्मकता और सादगी
है वहीं दूसरी ओर हेनरी मूर की मूर्तियों की पृथलता, कामनीयता एवं नवनीयता का भी दर्शन होता है । मूर्तियों
के वक्रता में लय है
जो उनके मूर्ति शिल्प
की खास पहचान है । शंखो चौधरी नारी
आकृति, वन्यजीवन के अलावा पोट्रेट के भी सिद्धहस्त कलाकार
थे । लोक और आदिवासी कला के साथ उनका विशेष लगाव था । शंखो चौधरी की मूर्तिकला का रेंज
माध्यम के हिसाब से काफी विस्तृत था । उनकी बनाई मूर्तियों में व्यक्ति की
संपूर्ण व्यक्तित्व की झलक मिलता है । 1971 में भारत सरकार ने उन्हें ‘ पद्मश्री ’ से सम्मानित किया । शंखो चौधरी ने 1976
में दिल्ली के ‘ गढ़ी ‘ में समुदायिक
कार्यशाला की शुरूआत की जो उनके रचनात्मक प्रबंधन कौशल का कमाल है । मूर्तिशिल्प,ग्राफिक्स, चित्रकारी समेत वहॉं 150 से भी ज्यादा कलाकार सृजनरत रहते हैं ।शंखो
चौधरी के निधन के समय बंगाल ने अपने इस कला पुत्र का यथेष्ट सम्मान नहीं दिया ।
शायद इसलिए कि प्रारंभिक दिनों को छोड़कर उनका अधिकांश समय बंगाल से बाहर गुजरा था
परंतु वे बंगाल के कलाकार के रूप में ही जाने जाते थे ।
सोमनाथ होर
(1921-2006) मूर्तिकार के साथ प्रिंटमेकर भी थे । वे तब चर्चा में आये जब 1943 में
बंगाल में पड़े दुर्भिक्ष को, अपने ग्रुप के अन्य साथियों के साथ चित्रों में
रूपायित किया और बंगाल-स्कूल की प्रवृत्तियों पर प्रश्नचिन्ह लगाये । उन्होंने
युद्ध और अकाल की विभीषिका को अपनी मूर्तियों में इस कदर ढ़ाला कि देखने वाले को
एकबारगी झकझोर देता हैं । 2006 में उनके निधन पर पं. बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी
ने कहा कि सोमनाथ होर एक कलाकार से भी ज्यादा बड़े थे । वे मानवीय दुर्दशा के
मात्र प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे वरन् अपनी गवाही को उन्होंने कला के माध्यम से
अभिव्यक्त किया ।
बाद की पीढ़ी यानि छठे और
सातवें दशक में क्रियाशील मूर्तिकारों ने मूर्तिशिल्प में नित्य नये-नये आयाम
जोड़े और नितांत भारतीय शैली का निर्माण किया जो पश्चिमी शैली से बिल्कुल अलग थी ।
इन कलाकारों की सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति
के केन्द्र में है – अंतर्मन की भावनाओं का प्रकटीकरण तथा मूर्तिकला के
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमानों के साथ कदम-कदम से मिलाकर चलने की प्रवृत्ति । इस दौर
के उल्लेखनीय शिल्पी हैं – सरवरी राय चौधरी ( 1933-2012), माधव भट्टाचार्जी
(1933), विपिन गोस्वामी (1934), उमा सिद्धांत (1933), शंकर घोष (1934), दिलीप सरहर
(1944) एवं माणिक तालुकदार (1944) इन मूर्तिकारों के प्रेरक एवं उद्दीप्त विचारों
को उनकी विलक्षण मूर्तियों में देखा जा सकता है ।
मूर्तिकारों की परवर्ती
पीढ़ी ने इस त्रिआयामी कला में शैली, विषय और माध्यम तीनों ही स्तर पर नये-नये
अनुदर्शनों का समावेश किया । इस पीढ़ी के कलाकारों ने परंपरागत भारतीय मूर्तिशिल्प
का अवशेष मात्र भी नहीं है । इन कलाकारों के लिए त्रिआयामी मूर्तिकला में ठोस आयतन
, मात्रा और स्थूलता जैसे विषय महत्वपूर्ण नहीं है , बल्कि इनके लिए
महत्वपूर्ण है -‘समय’ , जिस समय में वे जी
रहे हैं । आधुनिक समय में विज्ञान एवं तकनीक का प्रचलन सामाजिक जीवन में बढ़ा है,
जो उनके शिल्प रचनाओं में समाविष्ट है । इन कलाकारों के स्कल्पचर में जैविक संरचना और आकृति का उतना महत्व नहीं है
जितना कि विषय वस्तु के अंतर्निहित गुण एवं भाव की अभिव्यक्ति का है तथा इसके
अलावा नित्य प्रकरण में जटिल सामाजिक -संरचना , मानवीय समस्याएं, विश्व में घटित
घटनाएं इत्यादि भी विषय वस्तु के रूप में समाहित
है । फलत: अभिव्यक्ति के नये-नये रूप दृष्टिगोचर हुए हैं । नयी पीढ़ी के
शिल्पी मूर्तिकला के परंपरागत माध्यम- संगमरमर, ब्रोंज , धातु , प्रस्तर, लकड़ी के
अलावा प्लास्टिक , फाइबर, ग्लास, रबर , चमड़ा एवं स्टील प्लेट इत्यादि का उपयोग कर
रहे हैं फलतः मूर्तिशिल्प नित्य नई-नई सम्मोहक संभावनाओं का द्वार खोलते जा रहा है
। बंगाल के जिन कलाकारों ने मूर्तिकला में
अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है और आधुनिक भारतीय मुहाबरों में देश-विदेश में अपनी धाक
जमाई है उनमें प्रमुख हैं – विमल कुंडु, गोपीनाथ राय , सुनील कुमार दास, श्यामल
राय, सुभाष राय, सुनंदा दास, सुनील पाल एवं सुरजीत दास, रामकुमार मन्ना(टेराकोटा),
इनु मन्ना(टेराकोटा) इत्यादि ।
उदारीकरण के बाद पश्चिम के प्रभाव में इंस्टालेशन मूर्तिकला
में एक नई भाषा के रुप में ईजाद हुई है । हिन्दुस्तान
में पहली बार विवान सुंदरम् ने इंस्टालेशन
का प्रयोग किया था। लोगो ने नकार दिया था । बाद में बंगाल के कलाकारों-वीणा
भार्गव,परेश मैइती इत्यादि ने इसका उपयोग किया।
मूर्तिकला में
आधुनिकता भले ही चित्रकला की तुलना में तीन दशकों के बाद प्रारंभ हुई परंतु शिल्पगत
प्रयोगों में मूर्तिकला ने जिस तेजी से विकास किया है , चित्रकला
को पीछे छोड़ दे रहा है । विषय, माध्यम, और शैलीगत प्रयोग मूर्तिकला में नित्य किये जा रहे हैं तथा अभिव्यक्ति की नई
भाषा, नई जमीन, तलाशी जा रही है । परंतु
दु:खद स्थिति यह है कि कुछेक मूर्तिकारों की कृतियों को छोड़कर
बाजार में अधिकांश मूर्तिकारों की कृतियाँ
पेंटिंग की तुलना में काफी कम दाम पर बिकती हैं । इसलिए युवाओं
में मूर्तिकार बनने की वैसी प्रबल इच्छा नहीं होती जैसा कि रामकिंकर बैज , सोमनाथ होर और चिंतामणि कर जैसे मूर्तिकारों को था । कला- प्रदर्शनियों में भी मूर्तिकारों को
फीलर के रूप में रखा जाता है । साल दो साल में भी शायद ही कभी कोलकाता के किसी गैलरी
में सिर्फ मूर्तिकारों की मूर्तियाँ प्रदर्शित की गई हों । इसलिए कला के रूप में युवाओं
की पहली पसंद चित्रकला है न कि मूर्तिकला । पेंटिंग की तुलना में मूर्ति ज्यादा स्थान
छेकती है इसलिए ग्राहकों की भी पसंद पेंटिंग्स होती है ना कि मूर्तियाँ । कुछ कला संग्राहक,
गैलरी और कारपोरेट हाउस मूर्तियों की खरीदारी करते हैं लेकिन उनकी पहली
पसंद चर्चित मूर्तिकारों की कृतियाँ होती हैं , ना कि युवा मूर्तिकारों
की । युवा मूर्तिकारों को चित्रकार की तुलना में ज्यादा स्ट्रगल करना होता है । जीवन
यापन के लिए युवा मूर्तिकारों
को अन्य कोई काम करना पड़ता है ।
उदारीकरण के
बाद हिन्दुस्तान के मूर्ति शिल्प में जिस प्रवृत्ति की शुरूआत हुई है , उसके केन्द्र में है – किसी आदर्श का नहीं होना । विस्मित
और चकित कर देने वाली कृतियों से कलाकार चौकाते हैं । अनीस कपूर (भारतीय मूल के ब्रितानी कलाकार) ,
सुबोध गुप्ता , रवीन्द्र रेड्डी,
भक्ति खेर , रकीब साह की मूर्तियाँ अंतर्राष्ट्रीय
बाजार में करोड़ों में बिकती है । बंगाल के परेश मैइती भी वैसे कलाकार है जिन्होंने
उदारीकरण के बाद अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त किया है । वे भी एक नई शिल्प भाषा गढ़
रहे हैं परंतु परंपरा से विछिन्न होने को उचित नहीं मानते हैं । ग्लोबल समय में भारतीयता
की पहचान अगर किसी कलाकृति में नहीं हैं तो उसकी पूछ नहीं है । अंतर्राष्ट्रीय बाजार
में चीन के कलाकारों की कलाकृतियाँ हिन्दुस्तान के कलाकारों की कलाकृतियाँ से अधिक
दाम में बिकती है क्योंकि उसमें चीनी संस्कृति की झलक होती है ।
बंगाल में विभिन्न अंचलों में
टेराकोटा माध्यम में बनी मूर्तियाँ बहुतायत में हैं जो बंगाल की
विशिष्टता है। बंगाल की मिट्टी में नमनीयता अधिक है जिसके कारण मूर्ती बनाने में
आसानी होती है तथा ये सहज ही उपलब्ध है। फलतः मिट्टी की
मूर्तियाँ, खिलौने, टेराकोटा मंदिर बनाने की एक सुदीर्घ परंपरा बंगाल में है। पालवंश में बंगाल के
कलाकारों ने उत्कृष्ट श्रेणी की मूर्तियों का निर्माण किया है। आठ से बारहवीं सदी
तक बंगाल में बनी टेराकोटा की मूर्तियाँ उत्कृष्टता के लिहाज से पत्थर के
मूर्तियों से बेहतर हैं। चंद्रकेतुगढ़, पहारपूर, तामलुक इत्यादि जगहों से उत्खनन में टेराकोटा की मूर्तियाँ प्राप्त हुई
हैं। मौजूदा समय में बांकुरा कृष्णनगर मिटटी के खिलौने और मूर्तियों के लिए
प्रसिद्ध हैं। लेकिन उदारीकरण के बाद से चीन में बनीं मूर्तियाँ कृष्णनगर की
मूर्तियों को मात दे रही हैं। कोलकाता के कुम्हार टोली में कुम्हार परंपरागत रूप से देवी देवताओं की मूर्तियाँ
बनाते आ रहें हैं। कुम्हार टोली के दुर्गा प्रतिमा की विदेशों में भी मांग है। अभी
इसे बाज़ार की चुनौती नहीं मिली है। लेकिन मूर्तियों में व्यवहार होने वाली वस्तुओं
की कीमत बढ़ने से कलाकारों की आमदनी कम हो गयी है। युवा लोग कोई विकल्प नहीं होने
के कारण इस पेशे में हैं। लोक कलाकार को समाज में ना तो यथेष्ट सम्मान प्राप्त है
और ना ही पैसा। इसलिए युवा लोग इस पेशे में आने से
कतराते हैं। सरकार को चैहिये कि इन लोककलाकारों की मदद करें तथा प्रतिभाशाली
कलाकारों को आगे बढ़ने का मौका मुहैया करें। लोक शिल्पियों के पास जो परंपरागत हुनर
है उसे यदि सही प्रशिक्षण दिया जाय तो अंतराष्ट्रीय बाज़ार में देशज पहचान वाले
कलाकृतियों की अच्छी कीमत मिल सकती है।
Achi jankari hai
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया जानकारी दिया भारतीय मूर्तिकला के प्रसार और भारतीय मूर्तिकारों के बारे में।
ReplyDeletevery nice meterial
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